भारत की लगभग 82% आबादी ले रही बेहद खराब हवा में सांस: स्टडी
Indians Breathing Hazardous Air | भारत में वायु प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह एक बड़ा स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। हाल ही में प्रकाशित लैंसेट प्लैनेट हेल्थ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में वायु गुणवत्ता का स्तर इतना खराब है कि हर साल करीब 15 लाख लोग इसकी वजह से जान गंवा रहे हैं। भारत के अधिकांश लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा तय किए गए मानकों से कहीं अधिक प्रदूषित है। 2019 के आंकड़ों के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में पीएम 2.5 का स्तर 11.2 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया, जो तुलनात्मक रूप से बेहतर है। लेकिन दिल्ली और गाजियाबाद जैसे शहरी क्षेत्रों में यह स्तर 119 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच गया, जो राष्ट्रीय मानक (40 माइक्रोग्राम) और डब्ल्यूएचओ मानक (5 माइक्रोग्राम) से कहीं अधिक है।
इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि अध्ययन के मुताबिक, रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 81.9% आबादी ऐसी जगहों पर रहती है जहां हवा की गुणवत्ता राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित नेशनल एम्बिएंट एयर क्वालिटी स्टैंडर्ड्स (NAAQS) से भी खराब है। यह स्तर 40 µg/m³ से अधिक है, जबकि WHO ने इसे केवल 5 µg/m³ के मानक पर तय किया है। अगर वायु गुणवत्ता NAAQS के स्तर तक भी पहुंच जाए, तो इससे 0.3 मिलियन मौतों को रोका जा सकता है। पीएम 2.5 जैसे सूक्ष्म कणों के कारण सिर्फ श्वसन तंत्र ही नहीं, बल्कि पूरे शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके प्रमुख प्रभावों में दिल का दौरा, स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, और बच्चों के शारीरिक व मानसिक विकास में बाधा शामिल हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि पीएम 2.5 के स्तर में हर 10 µg/m³ की वृद्धि से मृत्यु दर में 8.6% की वृद्धि होती है।
लेख के मुख्य बिंदु
Indians Breathing Hazardous Air
इस स्टडी में 2009 से 2019 के बीच के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। इसमें पाया गया कि अरुणाचल प्रदेश के लोअर सुबनसिरी जिले में 2019 में सबसे कम 11.2 µg/m³ का प्रदूषण स्तर दर्ज किया गया। इसके विपरीत, गाजियाबाद और दिल्ली जैसे इलाकों में 2016 में यह स्तर 119 µg/m³ तक पहुंच गया। शोधकर्ताओं ने नागरिक पंजीकरण प्रणाली (Civic Registration System) से प्राप्त आंकड़ों और सैटेलाइट आधारित डाटा का उपयोग कर वायु प्रदूषण से जुड़ी मौतों का आकलन किया। अध्ययन के अनुसार, 25% मौतें—यानी कुल 1.5 मिलियन मौतें—उच्च स्तर के पीएम 2.5 के संपर्क में आने से जुड़ी थीं। यह आंकड़ा ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज के पिछले अनुमान (1.1 मिलियन मौतें) से भी अधिक है।
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डॉक्टर दोराईराज प्रभाकरण, जो इस अध्ययन के सह-लेखक हैं, का कहना है कि “वायु प्रदूषण के खतरनाक प्रभावों को कम करने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है। चाहे वह निर्माण कार्य से निकलने वाला धूल हो, वाहनों का धुआं हो या फिर पराली जलाने का मसला—हर स्रोत पर नियंत्रण करना आवश्यक है।” वैसे प्रदूषण का एक अन्य प्रमुख असर बच्चों पर देखने को मिलता है। अध्ययन बताते हैं कि प्रदूषित हवा में सांस लेने से बच्चों के मस्तिष्क और शारीरिक विकास में देरी होती है। गर्भवती महिलाओं में वायु प्रदूषण गर्भस्थ शिशु के लिए गंभीर खतरा बन सकता है, जिससे जन्म के समय वजन कम होना और समयपूर्व जन्म जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोत
विभिन्न रिपोर्ट्स के अनुसार, भारत में वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में वाहनों से निकलने वाला धुआं, औद्योगिक उत्सर्जन, पराली जलाना और निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल शामिल हैं। इसके अलावा, थर्मल पावर प्लांट और जीवाश्म ईंधन का उपयोग भी वातावरण में हानिकारक गैसों का स्तर बढ़ा रहा है। उत्तर भारत में पराली जलाने का मुद्दा हर साल सर्दियों में गंभीर संकट खड़ा कर देता है। खासतौर पर दिल्ली-एनसीआर में, जहां पहले से ही वायु प्रदूषण का स्तर बेहद खराब है, पराली जलाने की वजह से स्थिति और भी खराब हो जाती है।
वायु प्रदूषण से जुड़ी मौतें
भारत में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा भी चौंकाने वाला है। हर साल लगभग 15 लाख लोग प्रदूषित हवा के कारण जान गंवा देते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया है कि अगर देश में वायु गुणवत्ता डब्ल्यूएचओ मानकों तक पहुंच जाए, तो इससे संबंधित 3 लाख मौतों को रोका जा सकता है। स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों के साथ-साथ वायु प्रदूषण का देश की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। बीमारियों के बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाओं पर अतिरिक्त खर्च होता है। इसके अलावा, काम करने योग्य दिनों में कमी आने से उत्पादकता घटती है। एक अनुमान के अनुसार, भारत को वायु प्रदूषण के कारण हर साल अरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है।